श्रीमद्भागवत पुराण के साथ-साथ कई अनेक हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों में समुद्रमंथन की चर्चा है । श्रीमद्भागवत के अनुसार इस समुद्रमंथन से साक्षात भगवान बिष्णु के अंशांश अवतार हाथों में कलश लिये धनवंतरी प्रगट हुये, जो आयुर्वेद के प्रवर्तक थे । महर्षि बाल्मीकी ने अपनी कृति रामायण में धनवंतरी को ‘आयेर्वेदमय’ अर्थात आयुर्वेद का साक्षात स्वरूप कहा है । इस प्रकार अन्येन ग्रंथों की मान्यताओं के अनुसार भगवान धनवंतरी को आयुर्वेद का जनक माना जाता है । किन्तु आयुर्वेद के आदि प्रवर्तक स्वयम्भू ब्रह्मा हैं, जिन्होंने इसका सर्वप्रथम उपदेश दक्षप्रजापति को किया था । दक्ष ने इसका ज्ञान अश्विनीकुमारों को दिया, जिनसे देवराज इंद्र द्वारा होते हुये अनेक ऋषियों कश्यप, वसिष्ठ, अत्रि, भृगु आदि तक पहुँचा ।
आयुर्वेद के इतनी लंबी यात्रा के सभी बातों को एक आलेख में समेटना संभव नहीं है । फिर भी प्रमुख सोपानाें को सम्मिलित कर आयुर्वेद उदृभव से विकास क्रम को संक्षिप्त रूप में प्रमखु आचार्य एवं उनके आयुर्वेद के अनुदान को स्मरण करते हुये आज किये जा रहे प्रयासों को रेखांकित करने का प्रयास किया जा रहा है ।
Maharshi Kashyap’s Kashnyasamhita– महर्षी कश्यप की काश्यसंहिता-
महर्षि कश्यप का एक प्राचीन ग्रंथ का नाम है ‘काश्यप संहिता’ है । जब इस इस ग्रंथ प्रचार कम होने लगा तो ऋचिक मुनी कं पांच वर्षीय पुत्र जीवक ने इसे नये रूप में प्रस्तुत किया जिसे ‘वृद्धजीवकीय तंत्र’ कहा गया । इस ग्रंथ में समस्त आयुर्वेदीय विषयों का प्रश्नोत्तररूप में निरूपण किया गया । बाद में इसी ‘वृद्धजीवकीय तंत्र’ से -अष्टांग आयुर्वेद’ की रचना हुई । कलान्तर में इसे ही ‘कौमारभृत्यतन्त्र’ के नाम से जाना गया ।
Waghata Code of Acharya Vagbhat– आचार्य वाग्भट की वाग्भट संहिता-
आचार्य वाग्भट की ‘वाग्भट संहिता’ जिसे ‘अष्टांगहृदय’ के नाम से भी जाना जाता है कि रचना लगभग 500 ईसापूर्व की माना जाती है । इस ग्रंथ में आयुर्वेद के संपूर्ण विषय को आठ भागों में विभाजित करते औषधि और शल्य चिकित्सा दोनो का समान रूप से समावेश किया गया है । इस ग्रंथ को शरीर रूपी आयुर्वेद के हृदय के रूप में स्वीकार किया गया है ।
Charaka Samhita of Acharya Charaka– आचार्य चरक की चरक संहिता
आचार्य चरक और आयुर्वेद का इतना घनिष्ठ संंबंध है कि आज भी ये दोनों नाम एक दूसरे के पूरक लगते हैं । आचार्य चरक आयुर्वेद के मर्मज्ञ थे । ऐसा कहा जाता है कि आचार्य चरक न केवल संहिताग्रन्थों के प्रणयन में संलग्न रहते थे, अपितु वे घूम-घूम कर जहॉं भी रोगी मिलते उनका उपचार किया करते थें । उनकी कृति ‘चरक संहिता’ चिकित्सा जगत का अत्यंत प्रमाणिक एवं प्राचीन ग्रंथ माना जाता है । चरक संहिता को तात्कालिक भाषा के अनुसार बहुत सहज एवं सरल भाषा में लिखी गई मानी जाती है । चरक संहिता में सूत्र, निदान, विमान, शरीर, इन्द्रिय, चिकित्सा, सिद्धि, और कल्प नाम से आठ भाग हैं । इस ग्रंथ के अनुसार तृष्णा को रोगों का प्रधान कारण बताया गया है ।
Sushruta Samhita of Acharya Sushruta– आचार्य सुश्रुत की सुश्रुत संहिता
आचार्य सुश्रुत प्राचीन काल के एक उच्चकोटि के आयुर्वेदाचार्य एवं शल्यचिकित्सक थे । जहॉं भगवान धनवंतरी को आयुर्वेद का जनक माना जाता है वहीं आचार्य सुश्रुत को शल्यचिकित्सा का जनक माना जाता है । सुश्रुत ने ‘सुश्रुतसंहिता’ नामक वृहद ग्रंथ की रचना की जिसे पांच स्थान के नाम से सूत्रस्थान, निदानस्थान, शरीर स्थान, चिकित्सा स्थान और कल्पस्थान में बांटा गया है । अंत में उत्तरतंत्र नाम से परिशिष्ट भी जोड़ा गया है । सुश्रुत अपने ग्रंथ में ‘यन्त्रशतमेकोत्तरम्’ में 100 शल्य तंत्र का उल्लेख किया है जिसमें शरीर के लगभग सभी अंगों की शल्य चिकित्सा का वर्णन मिलता है । आचार्य सुश्रुत त्वचारोपण, मोतियाबिंद शल्य, गर्भ शल्य, आदि कई शल्यक्रियाओं के विशेषज्ञ थे । आजकल सर्जिकल ऑपरेशन में प्रयुक्त उपकरणों का वर्णन ‘सुश्रुत संहिता’ में मिलता है । इस संहिता की रचना लगभग तीसरी सदी में हुई ।
Madhavnidan Samhita of Acharya-Madhava-आचार्य माधव की माधवनिदान संहिता
निदाने माधव: श्रेष्ठ:’ अर्थात रोगों के निदान के लिये आचार्य माधव का ग्रंथ ‘माधवनिदान’ श्रेष्ठ है । आयुर्वेद के अनुसार और आज के आधुनिक चिकित्सा पद्यति के अनुसार भी उपचार के तीन चरण होते हैं -1. रोगों के कारण को जानना, 2. रोगों के लक्षण को जानना, और 3. रोगी के लिये उपयुक्त औषधि का चयन करना इसे ही आयुर्वेद में क्रमश: हेतुज्ञान, लिंगज्ञान एवं औषधज्ञान कहा गया है । इन तीनों में लिंगज्ञान का महत्व सबसे ज्यादा है क्योंकि जब रोग का लक्ष्ण ठीक-ठाक जान लेने के पश्चात ही उसका उपचार उचित रूप से किया जा सकता है । इसी आवश्यकता के आधार पर आचार्य माधव ने एक ग्रंथ की रचना की जिसे ‘माधवनिदान’ के नाम से जाना गया । इस ग्रंथ में ज्वर को प्रधान बतलाते हुये इसे वात, कफ एवं पीत जनित मानते हुये वातज, पितज, कफज, वातपितज, वातकफज, पितकफज, त्रिदोष और आगन्तुज आठ भेद बताये गये हैं । इसके साथ ही इस गंथ में अतिसार, ग्रहणी, अर्श, अग्निमांध क्रिमि, पाण्डु, रक्तपित्त, कामला, राजयक्ष्मा,स्वरभेद, दाह, उन्माद, अपस्मार, हृदयरोग,, मुत्ररोग, प्रेमह, उदर, शेथ, गलगण्ड, श्लीपद विद्रधि आदि अनेक रोगों पर व्यापक चर्चा है । इस कृति छठवी सदी का माना जाता है ।
Acharya Shargadhar’s Shargadhar Code– आचार्य शार्ङ्गधर की शार्ङ्गधर संहिता
नाड़ीज्ञान द्वारा रोग-परीक्षण आयुर्वेद की एक विलक्षण विधा है । आयुर्वेद में नाड़ीशास्त्र का अपना अलग महत्त्व है । नाड़ी शास्त्र के रचनाकार के रूप में महर्षी कणद का नाम आता है । इसी कड़ी में आचार्य शार्ङ्गधर की ‘शार्ङ्गधर संहिता’ विशेष उल्लेखनिय है । इस ग्रंथ की रचना 12वी सदी में मानी जाती है । इस ग्रंथ में नाड़ी किस प्रकार देखा जाता है ? उससे क्या परिणाम निकाले जा सकते हैं ? जैसे प्रश्नों का उत्र सटिक रूप में दिया गया है । इस ग्रंथ का परिचय ही नाड़ी शास्त्र के रूप में स्वीकार किया गया है ।
Jeevak Kaumarbritya- जीवक कौमारभृत्य
जीवक कौमारभृत्य को आयुर्वेद का इतिहास पुरुष कहा जाता है । इतिहास में उनके द्वारा चिकित्सा किए जाने की अनेक वर्णन मिलते हैं। संभवत प्रथम मस्तिष्क शल्य क्रिया जीवक कौमारभृत्य नहीं क्या था । इसके संबंध में वर्णन मिलता है की एक नगर सेठ जिनके मस्तिष्क में कीड़े हो गए थे । उनका कई वैद्य ने निरीक्षण किया उपचार किया किंतु ठीक नहीं हो पाया कुछ वैद्य ने उन्हें 5 दिन ही और जीवित रहने तो किसी ने 7 दिनों की जीवन अवधि सेस होने की सूचना दे दी । इसी बीच जीवक कौमारभृत्य ने उसका निरीक्षण किया और उसके मस्तिष्क को काटकर मस्तिष्क से कीड़े बाहर निकाल कर पुनः मस्तिष्क की सिलाई कर दिया और जो रोगी केवल 7 दिन तक जीवित रह सकता था वह 21 दिन के अंदर पुनर्जीवन को प्राप्त किया।
Acharya Bhavprakash’s work Bhavaprakash- आचार्य भावप्रकाश की कृति भावप्रकाश
16वी सदी के आसपास आचार्य भावप्रकाश रचित ग्रंथ आयुर्वेद लघुत्रीय परिगणित है अर्थात इस ग्रंथ में आयुर्वेद के जटिल सिद्धांतों को संक्षेप रूप में प्रस्तुत किया गया है । इस ग्रंथ में दिनचर्या, रात्रिचर्या, आहार-विहार, तथा सदाचार को लाभकारी बताया गया है । इस ग्रंथ के अनुसार रोग के दो भेद होते हैं एक कर्मज और दूसरा दोषज । इसमें कर्मज रोगों का कारण दुष्कर्म को बताया गया है तथा इसका निदान प्रायश्चित को बताया गया है । दोषज रोग का कारण दिनचर्या, रात्रिचर्या, और आहार-विहार में दोष को बताया गया जिसके कारण वात, पित एवं कफ में असंतुलन के कारण रोग उत्पन्न होते हैं । इसी आधार पर इसके उपचार कहे गयें हैं ।
Vaidya Chintamani composed by Vallabhacharya- वल्लभाचार्य रचित वैद्य चिंतामणि
16 वीं शताब्दी में वल्लभाचार्य ने वैद्य चिंतामणि नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ का पहचान नाड़ी शास्त्र के रूप में होता है । इसी के समय से पुरुषों के दाएं हाथ एवं महिलाओं के बाएं हाथ का परीक्षण का विधान बना तथा हाथ के अतिरिक्त पैर से भी नाड़ी परीक्षण का इसमें वर्णन मिलता है ।
Vaidya Jeevan composed by Lolimbaraj- लोलिम्बराज रचित वैद्य जीवन
17 वी शताब्दी में लोलिम्बराज ने वेद जीवन नामक ग्रंथ की रचना की इसमें ज्वर, ज्वरातिसार, ग्रहणी, कास-श्वास, आमवात, कामला, स्तन्यदुष्टि, प्रदर, क्षय, व्रण, अम्लपित्त, प्रमेह आदि रोगों तथा वाजीकरण और विविध रसायनों का उल्लेख मिलता है ।
Presently working Ayurveda Research Institute– वर्तमान में कार्यरत आयुर्वेद शोध संस्थान
ऐसा कदापि नहीं है कि आयुर्वेद केवल इतिहास का विषय रह गया हो । आयुर्वेद पर आज भी शोध अनुसंधान कार्य चल रहा है । इस कार्य में भारत के कई संस्थान कार्यरत हैं जो आयुर्वेद शिक्षा एवं चिकित्सा को आगे बढ़ा रहे हैं । इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार है-
1. अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान नई दिल्ली- यह देश का आधुनिक शिक्षा एवं रिसर्च सेंटर है जो 2017 से कार्य कर रहा है इसके साथ 200 बिस्तरों वाला सर्व सुविधा युक्त अस्पताल भी संलग्न है ।
2. राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान जयपुर राजस्थान-
इसकी स्थापना 1976 में की गई थी। यहां आयुर्वेद पर डिप्लोमा से लेकर स्नातक और पीएचडी तक का कोर्स कराया जाता है।
3. गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय जामनगर गुजरात – आयुर्वेद का वैश्विक प्रचार-प्रसार इस संस्थान का मिशन है. यहां यूरोप, अफ्रीका और सार्क देशों के छात्र भी पढ़ते हैं ।
4. आयुर्वेद संकाय चिकित्सा विज्ञान हिंदू विश्वविद्यालय बनारस-1922 से इस विद्यालय में आयुर्वेद की शिक्षा दी जा रही है । यह संस्थान पुरानी चिकित्सा पद्धति और आधुनिक चिकित्सा पद्धति का बेजोड़ मेल प्रदर्शित करने के लिए जाना जाता है ।
5. राजकीय आयुर्वेद कॉलेज तिरुअनंतपुरम केरल-इसकी स्थापना 1889 में की गई थी इस कॉलेज में आयुर्वेद के 14 विभाग कार्यरत है जिसमें विद्यार्थियों को आयुर्वेद की शिक्षा दी जाती है ।
6. डीएमके आयुर्वेद कॉलेज केएलई यूनिवर्सिटी कर्नाटक-
यहां भारती मेडिसिन पद्धतियों का विकास एवं प्रसार किया जाता है । आयुर्वेद के क्षेत्र में अनेक शोध कार्य यहां किए जाते हैं ।
7. पोदार आयुर्वेद कॉलेज वर्ली मुंबई-
इसकी स्थापना 1941 में की गई थी जहां वर्तमान में विद्यार्थियों को स्नातक से लेकर डॉक्टर तक की डिग्री दी जाती है यहां का हर्बल गार्डन आयुर्वेद के शोधार्थियों के लिए उपयोगी है ।
इन संस्थानों के अतिरिक्त देश के प्रायः हर राज्य में या तो आयुर्वेद कॉलेज है अथवा आयुर्वेद यूनिवर्सिटी । लाखों ग्रामों में आयुर्वेद चिकित्सा केंद्र भी संचालित है
इस प्रकार पूरे घटनाक्रम को देखने के बाद यह कहा जा सकता है की आयुर्वेद भारत की मिट्टी में सम्मिलित है जिसे अलग नहीं किया जा सकता । आज भी करोड़ों लोग आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को या तो आयुर्वेद वैद्य की सहायता से अथवा घरेलू नुस्खे उपचार के सहायता से प्रयोग में ला रहे हैं । आधुनिक आयुर्वेद संस्थानों के कार्यरत होने से इस पर विभिन्न वैज्ञानिक शोध हो रहे हैं जिससे आयुर्वेद का भविष्य उज्जवल दिखाई देता है।
The post Journey from the original promoter of Ayurveda to the Ayurvedic Institute of today- आयुर्वेद के आदि प्रवर्तक से आज के आयुर्वेदिक संस्थान तक की यात्रा appeared first on Hindi Swaraj.
source
https://hindiswaraj.com/journey-from-the-original-promoter-of-ayurveda-to-the-ayurvedic-institute-of-today-%e0%a4%86%e0%a4%af%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a5%87%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%86%e0%a4%a6/