Wednesday, 22 July 2020

Ayurveda Introduction- आयुर्वेद एक परिचय

Role- भूमिका-

सृष्टि के उत्‍पत्‍ती के साथ ही मानव जीवन का विकास प्रारंभ हुआ । आदि मानव से आज के आधुनिक मानव सम्‍भ्‍यता तक अनेक सोपानों से होकर मनुष्‍य गुजरा है । समय के अनुसार उनके आवश्‍यकताओं में भी परिवर्तन हुआ है किन्‍तु मूलभूत आवश्‍यकताएं तो वहीं के वहीं रहे केवल उनके स्‍वरूप में ही परिवर्तन हुआ है । मूलभूत आवश्‍यकताओं में भोजन के अतिरिक्‍त स्‍वास्‍थ्‍य और सुरक्षा रहा है । मनुष्‍य अपने देह के लिये उद्भव काल से ही जागरूक रहा होगा, देह की रक्षा करना ही स्‍वास्‍थ्‍य कहलाया होगा । देह की रक्षा करने की विधि को चिकित्‍सा कहा गया ।

मानव स्‍वास्‍थ्‍य के इतिहास में झांक कर देखा जाये तो सबसे प्राचीन और संभवत: पहला चिकित्‍सकी पद्यति आयुर्वेद ही है । आयुर्वेद अपने जन्‍म से लेकर आज पर्यन्‍त उपयोगी बना हुआ है । यह अलग बात है कि मनुष्‍य जीवन में जिस प्रकार अच्‍छे एवं बुरे समय होते हैं किन्‍तु जीवन बना रहता है, उसी प्रकार आयुर्वेद भी विभन्‍न अच्‍छे एवं बुरे दौर से गुजरते हुए आज भी अपने अस्तितत्‍व को बचाये हुये है ।

Meaning of ayurveda- आयुर्वेद का अर्थ-

आयुर्वेद दो शब्‍दों के मेल से बना है । एक आयु दूसरा वेद । पहले आयु शब्‍द पर विचार करने पर हम पाते हैं कि शरीर रूपी यंत्र को प्राण शक्ति सुचारू रूप से संचालित करता है । शरीर के अंग विश्राम करते हैं, प्राण शक्ति नहीं, शरीर सोता है, प्राण शक्ति नहीं । प्राण शक्ति अनवरत क्रियाशिल रहता है और जब तक शरीर में प्राणशक्ति का संचार है, शरीर का आयु है । जिस दिन प्राण शक्ति का अस्तित्‍व शरीर से समाप्‍त हुआ शरीर को शव कह कर कहते हैं  कि- ‘इनकी आयु इतनी ही थी।’  अर्थात आयु प्राणशक्ति के शरीर में क्रियाशिल रहने की अवधी है । प्रत्‍यक्षत: आयु प्राणशक्ति का ही प्रतिक है । वेद का अर्थ ज्ञान का भण्‍डार होता है । इसप्रकार आयु को, प्राणशक्ति को यथावत रखने का ज्ञान कराने वाले ग्रंथ या वेद को ही आयुर्वेद कहते हैं । शरीर में प्राणशक्ति को आधि और व्‍याधि क्षति पहुँचाते है । अंतकरण के दुख-कष्‍ट को आधि और शरीर के दुख-कष्‍ट को व्‍याधि कहते हैं । प्राणशक्ति के रक्षार्थ आधि और व्‍याधि दोनों से बचने की आवश्‍यकता है । इसी आवश्‍यकता को पूर्ति करने का स्रोत आयुर्वेद है । स्‍पष्‍ट है आयुर्वेद केवल शरीर के रोगों का निदान पर विचार नहीं करती अपितु यह अंत:करण के आधि का भी उपचार करती है । आयुर्वेद शास्‍त्र कहता है – ”धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्‍यं मूल मुक्‍तमम” धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति का मूल आरोग्‍य ही है । साधारण शब्‍दों में कहें तो निरोगी काया से ही कुछ भी किया जा सकताहै । परिश्रम करके ही कुछ पाया जा सकता है । रोगी काया से कुछ भी संभव नहीं इसलिये आरोग्‍य अर्थात स्‍वास्‍थ्‍य ही सभी कर्म धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूल है ।

History of Ayurveda-आयुर्वेद का इतिहास-

पुरातत्‍ववेत्‍ताओं के अनुसार आयुर्वेद 50 हजार वर्ष ईशा पूर्व प्राचीन है । कुछ विद्वानों का मत हैं कि आयुर्वेद इससे भी प्राचीन है । इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि संसार की प्राचीनतम ग्रंथ ऋगवेद है जिसकी रचना आज से लाखों वर्ष पूर्व हुआ था । इस ऋगवेद ग्रंथ में आयुर्वेद के ‘यत्र-तत्र-विकर्ण’ नामक सिद्धांत का उल्‍लेख है । भारतीय दर्शन में चार वेदों की मान्‍यता है ।  उन्‍हीं वेदों में चौथे वेद अथर्ववेद का आयुर्वेद को उपवेद माना जाता है ।

भगवान धनवंतरी को आयुर्वेद का जनक माना जाता है यद्यपि आयुर्वेद का अस्तित्‍व उनके अवतरण से पहले भी था । इस संबंध में सुश्रुत का यह कथन उल्‍लेखनिय है- सुश्रुत के अनुसार जब ऋषियों ने आयुर्वेद के अध्‍ययन के लिये भगवान धनवंतरी के पास गये तो स्‍वयं धनवंतरी ने ऋषियों को बतलाया था कि सर्वप्रथम स्‍वयं ब्रह्मा ने सृष्टि रचना के पूर्व ही अथर्ववेद के उपवेद के रूप में आयुर्वेद को एक  सहत्र अध्‍याय और शत सहत्र श्‍लोकों के साथ प्रकाशित किया । भगवान धनवंतरी के अनुसार ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, दक्ष प्रजापति से अश्‍वनीकुमार फिर अश्‍वनी कुमार से इन्‍द्र ने आयुर्वेद की शिक्षा ली । 

चरकमतानुसार इन्‍द्र से भरद्वाज ने आयुर्वेद की शिक्षा ली फिर उन्‍होंने अपने छ: श्रेष्‍ठ शिष्‍यों को इनकी शिक्ष दी । इन्‍हीं छ: शिष्‍यों में अग्निवेश नामक शिष्‍य ने आयुर्वेद के व्‍याख्‍या करते अग्निवेश संहिता का निर्माण किया इसी अग्निवेश संहिता का रूपांतरण चरक ने किया जिसे आज भी चरक संहिता के नाम से जाना जाता है । चरक संहिता को आयुर्वेद का आधार स्‍तम्‍भ माना जाता है ।

Development of Ayurveda- आयुर्वेद का विकास क्रम-

वेदों को श्रीहरि बिष्‍णु के मुख से निसृत माना जाता है और ब्रह्माजी ने स्‍वयं अथर्ववेद से ही आयुर्वेद उपवेद का प्रकाशन किया । इस प्राकर वेदों से लेकर आजतक आयुर्वेद के विकास क्रम को पांच भागों में बांटा जा सकता है – 

  1. वैदिक काल
  2. संहिता काल
  3. व्‍याख्‍या काल
  4. विवृत्तिकाल
  5. आधुनिककाल

Vedic period-वैदिक काल- 

500 वर्ष ईशा पूर्व के समय को वैदिक काल कहा जाता है । चारों वेदों में कुछ न कुछ आयुर्वेद के संबंध में चर्चा उपलब्‍ध है । ऋग्‍वेद मे आयुर्वेद के उद्देश्‍य, वैद्यों का धर्म, औषधियों का शरीर पर प्रभव का उल्‍लेख के साथ-साथ अग्नि चिकित्‍सा, सूर्यचिकित्‍सा, जल चिकित्‍सा, शल्‍य चिकित्‍सा, विष चिकित्‍सा आदि का विवरण मिलता है । वैद्यक गुण-कर्म चिकित्‍सा , नीरोगता जैसे विषयों का उल्‍लेख यजुर्वेद में मिलता है । सामवेद कम मात्रा में ही सही वैद्य और कुछ रोग का उल्‍लेख तो है । आयुर्वेद का मुख्‍य आधार वेद है अथर्ववेद । अथर्ववेद में आयुर्वेद का चित्रांकन ‘भिषग्‍वेद’  नाम से किया गया है जिसमें आयुर्वेद से सबंधित विभिन्‍न विषयों का व्‍यापक रूप से वर्णन मिलता है ।

Code period- संहिता काल-

500 ईशा पूर्व के बाद से 6 वीं शताब्दि तक के समय को संहिताकाल कहा जाता है । संहिताकाल में आयुर्वेद का जो ज्ञान ब्रह्मा से चलकर भरद्वाज तक प्रवाहित होता रहा । इस ज्ञान को लिपिबद्ध करने का यत्‍न किया गया । इस काल में मूल ग्रंथों की रचना हुई जिसमें चरक का ‘चरकसंहिता’, सुश्रुत का ‘सुश्रुत संहिता’ एवं वाग्‍भट का ‘अष्‍टांग संग्रह’ उल्‍लेखनीय है ।

Interpretation period- व्‍याख्‍याकाल-

7वीं सदी से 15वीं सदी तक के समय को व्‍याख्‍याकाल कहा जाता है । इस काल में संहिता काल में रचित मौलिक संहिताओं का व्‍याख्‍या किया गया । संहिता के ज्ञान को सरल ढंग से लोगों तक पहँचाने का काम किया गया जिससे इसे जनोपयोगी बनाया जा सके । इस काल के प्रमुख ग्रंथ के रूप में ”रसरत्‍नसमुच्‍चय” को जाना जाता है ।

Expiration-विवृतिकाल-

16 वीं शताब्दि से लेकर 19वीं शताब्दि तक के समय को विवृतिकाल कहा जाता है । इस काल में आयुर्वेद का विस्‍तार एवं प्रयोग व्‍यापक पैमाने में हुआ । इस काल में विषय विशेष पर ग्रंथ लिखे गये । उपयोग के दृष्टिकोण से इसी समय को आयुर्वेद का स्‍वर्णिमकाल माना जा सकता है । माधवनिदान, ज्‍वरदर्पण जैसे ग्रंथ इस काल का देन है ।

Modern Era- आधुनिककाल-

19वीं शताब्दि के बाद से आज तक के समय को आधुनिककाल कहा जा सकता है । इस समय ऐसा जरूर लगता है कि आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार उपयोग कम हो गया है किन्‍तु यथार्थ में ऐसा नहीं है । आधुनिक समय में भी आयुर्वेद पर बहुत काम हुये और बहुत काम हो रहे हैं । आधुनिककाल में आयुर्वेद पर प्रयोगो का दौर के रूप में देखा जाता है । इसी समय एलोपैथी चिकित्‍सा पद्यति का विकास हुआ, जो तात्‍कालिक लाभ के दृष्टिकोण अधिक लाभकारी होने के कारण आयुर्वेद चिकित्‍सा पद्यति से मोह भंग होने का अंदेशा को जन्‍म दिया किंतु आयुर्वेद के स्‍थाई निदान, स्‍थाई उपचार विधि के कारण इसके महत्‍व में कमी नहीं आया हालाकि उपयोग के दृष्टिकोण महत्‍व कम जरूर लगता  है ।

Importance of Ayurveda- आयुर्वेद का महत्‍व-

आयुर्वेद का महत्‍व इसी बात से स्‍वयं सिद्ध है कि यह सृष्टि रचना के समय से आज पर्यन्‍त जीवित है । विभिन्‍न उतार-चढ़ाव, झंझावतों को झेल कर जो अडिग खड़ा हो तो उनमें जरूर कोई न कोई बात तो है । 

आयुर्वेद के अनुसार मानव देह का निर्माण प्रकृति के मूलभूत तत्‍व धरती, जल, अग्नि, आकश और वायु से हुआ है । इसी के अनुसार रोगों को कफ, वात, पीत में बांट कर इनका प्राकृतिक रूप से उपचार किया जाता है । इस उपचार पद्यति में रोग का नहीं रोग के कारण का उपचार किया जाता है इस कारण इससे किसी भी रोग को जड़ से समाप्‍त किया जा सकता है । प्राकृतिक तत्‍वों का प्रभाव धीरे-धीरे दिखाई देता है इसलिये इस उपचार पद्यति धैर्य एवं पथ्‍य-अपथ्‍य की आवश्‍यकता होती है । इसके परिणाम में कभी भी किसी ने काई प्रश्‍न खड़ा नहीं किया है ।

आज आवश्‍यकता है कि आयुर्वेद का वैज्ञानिक मापदण्‍ड़ों के आधार पर परीक्षण किया जाये और आयुर्वेद के तथ्‍यों को वैज्ञानिक तथ्‍यों के साथ जोड़ा जाये जिससे इनकी मान्‍यता और उपयोगिता का विस्‍तार किया जा सके ।

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